Lekhika Ranchi

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मुंशी प्रेमचंद ः निर्मला



अस्पताल पहुंचकर वह लपके हुए मंसाराम के पास गये। देखा तो डॉक्टर साहब उसके सामने चिन्ता में मग्न खड़े थे। मुंशीजी के हाथ-पांव फूल गये। मुंह से शब्द न निकल सका। भरभराई हुई आवाज में बड़ी मुश्किल से बोले- क्या हाल है, डॉक्टर साहब? यह कहते-कहते वह रो पड़े और जब डॉक्टर साहब को उनके प्रश्न का उत्तर देने में एक क्षण का विलम्बा हुआ, तब तो उनके प्राण नहों में समा गये। उन्होंने पलंग पर बैठकर अचेत बालक को गोद में उठा लिया और बालक की भांति सिसक-सिसककर रोने लगे। मंसाराम की देह तवे की तरह जल रही थी। मंसाराम ने एक बार आंखें खोलीं। आह, कितनी भयंकर और उसके साथ ही कितनी दी दृष्टि थी। मुंशीजी ने बालक को कण्ठ से लगाकर डॉक्टर से पूछा-क्या हाल है, साहब! आप चुप क्यों हैं?
डॉक्टर ने संदिग्ध स्वर से कहा- हाल जो कुछ है, वह आपे देख ही रहे हैं। 106 डिग्री का ज्वर है और मैं क्या बताऊं? अभी ज्वर का प्रकोप बढ़ता ही जाता है। मेरे किये जो कुद हो सकता है, कर रहा हूं। ईश्वर मालिक है। जबसे आप गये हैं, मैं एक मिनट के लिए भी यहां से नहीं हिला। भोजन तक नहीं कर सका। हालत इतनी नाजुक है कि एक मिनट में क्या हो जायेगा, नहीं कहा जा सकता? यह महाज्वर है, बिलकुल होश नहीं है। रह-रहकर ‘डिलीरियम’ का दौरा-सा हो जाता है। क्या घर में इन्हें किसी ने कुछ कहा है! बार-बार, अम्मांजी, तुम कहां हो! यही आवाज मुंह से निकली है।
डॉक्टर साहब यह कह ही रहे थे कि सहसा मंसाराम उठकर बैठ गया और धक्के से मुंशीज को चारपाई के नीचे ढकेलकर उन्मत्त स्वर से बोला- क्यों धमकाते हैं, आप! मार डालिए, मार डालि, अभी मार डालिए। तलवार नहीं मिलती! रस्सी का फन्दा है या वह भी नहीं। मैं अपने गले में लगा लूंगा। हाय अम्मांजी, तुम कहां हो! यह कहते-कहते वह फिर अचेते होकर गिर पड़ा।

मुंशीजी एक क्षण तक मंसाराम की शिथिल मुद्रा की ओर व्यथित नेत्रों से ताकते रहे, फिर सहस उन्होंने डॉक्टर साहब का हाथ पकड़ लिया और अत्यन्त दीनतापूर्ण आग्रह से बोले-डॉक्टर साहब, इस लड़के को बचा लीजिए, ईश्वर के लिए बचा लीजिए, नहीं मेरा सर्वनाश हो जायेगा। मैं अमीर नहीं हूं लेकिन आप जो कुछ कहेंगे, वह हाजिर करुंगा, इसे बचा लीजिए। आप बड़े-से-बड़े डॉक्टर को बुलाइए और उनकी राय लीजिएक , मैं सब खर्च दूंगा। इसीक अब नहीं देखी जाती। हाय, मेरा होनहार बेटा! डॉक्टर साहब ने करुण स्वर में कहा- बाबू साहब, मैं आपसे सत्य कह रहा हूं कि मैं इनके लिए अपनी तरफ से कोई बात उठा नहीं रख रहा हूं। अब आप दूसरे डॉक्टरों से सलाह लेने को कहते हैं। अभी डॉक्टर लाहिरी, डॉक्टर भाटिया और डॉक्टर माथुर को बुलाता हूं। विनायक शास्त्री को भी बुलाये लेता हूं, लेकिन मैं आपको व्यर्थ का आश्वासन नहीं देना चाहता, हालत नाजुक है।
मुंशीजी ने रोते हुए कहा- नहीं, डॉक्टर साहब, यह शब्द मुंह से न निकालिए। हाल इसके दुश्मनों की नाजुक हो। ईश्वर मुझ पर इतना कोप न करेंगे। आप कलकत्ता और बम्बई के डॉक्टरों को तारा दीजिए, मैं जिन्दगी भर आपकी गुलामी करुंगा। यही मेरे कुल का दीपक है। यही मेरे जीवन का आधार है। मेरा हृदय फटा जा रहा है। कोई ऐसी दवा दीजिए, जिससे इसे होश आ जाये। मैं जरा अपने कानों से उसकी बाते सुनूं जानूं कि उसे क्या कष्ट हो रहा है? हाय, मेरा बच्चा!
डॉक्टर- आप जरा दिल को तस्कीन दीजिए। आप बुजुर्ग आदमी हैं, यों हाय-हाय करने और डॉक्टरों की फौज जमा करने से कोई नतीजा न निकलेगा। शान्त होकर बैठिए, मैं शहर के लोगों को बुला रहा हूं, देखिए क्या कहते हैं? आप तो खुद ही बदहवास हुए जाते हैं।
मुंशीजी- अच्छा, डॉक्टर साहब! मैं अब न बोलूंग, जबान तब तक न खोलूंगा, आप जो चाहे करें, बच्चा अब हाथ में है। आप ही उसकी रक्षा कर सकते हैं। मैं इतना ही चाहता हूं कि जरा इसे होश आ जाये, मुझे पहचान ले, मेरी बातें समझने लगे। क्या कोई ऐसी संजीवनी बूटी नहीं? मैं इससे दो-चार बातें कर लेता। यह कहते-कहते मुंशीजी आवेश में आकर मंसाराम से बोले- बेटा, जरा आंखें खोलो, कैसा जी है? मैं तुम्हारे पास बैठा रो रहा हूं, मुझे तुमसे कोई शिकायत नहीं है, मेरा दिल तुम्हारी ओर से साफ है।
डॉक्टर- फिर आपने अनर्गला बातें करनी शुरु कीं। अरे साहब, आप बच्चे नहीं हैं, बुजुर्ग है, जरा धैर्य से काम लीजिए।
मुंशीजी- अच्छा, डॉक्टर साहब, अब न बोलूंगा, खता हुई। आप जो चाहें कीजिए। मैंने सब कुछ आप पर छोड़ दिया। कोई ऐसा उपाय नहीं, जिससे मैं इसे इतना समझा सकूं कि मेरा दिल साफ है? आप ही कह दीजिए डॉक्टर साहब, कह दीजिए, तुम्हारा अभागा पिता बैठा रो रहा है। उसका दिल तुम्हारी तरफ से बिलकुल साफ है। उसे कुछ भ्रम हुआ था। वब अब दूर हो गया। बस, इतना ही कर दीजिए। मैं और कुछ नहीं चाहता। मैं चुपचाप बैठा हूं। जबान को नहीं खोलता, लेकिन आप इतना जरुर कह दीजिए।
डॉक्टर- ईश्वर के लिए बाबू साहब, जरा सब्र कीजिए, वरना मुझे मजबूर होकर आपसे कहना पड़ेगा कि घर जाइए। मैं जरा दफ्तर में जाकर डॉक्टरों को खत लिख रहा हूं। आप चुपचाप बैठे रहिएगा।
निर्दयी डॉक्टर! जवान बेटे की यहा दशा देखकर कौन पिता है, जो धैर्य से कामे लेगा? मुंशीजी बहुत गम्भीर स्वभाव के मनुष्य थे। यह भी जानते थे कि इस वक्त हाय-हाय मचाने से कोई नतीजा नहीं, लेकिन फिरी भी इस समय शान्त बैठना उनके लिए असम्भव था। अगर दैव-गति से यह बीमारी होती, तो वह शान्त हो सकते थे, दूसरों को समझा सकते थे, खुद डॉक्टरों का बुला सकते थे, लेकिन क्यायह जानकर भी धैर्य रख सकते थे कि यह सब आग मेरी ही लगाई हुई है? कोई पिता इतना वज्र-हृदय हो सकता है? उनका रोम-रोम इस समय उन्हें धिक्कार रहा था। उन्होंने सोचा, मुझे यह दुर्भावना उत्पन्न ही क्यों हुई? मैंने क्यां बिना किसी प्रत्यक्ष प्रमाण के ऐसी भीषण कल्पना कर डाली? अच्दा मुझे उसक दशा में क्या करना चाहिए था। जो कुछ उन्होंने किया उसके सिवा वह और क्या करते, इसका वह निश्चय न कर सके। वास्तव में विवाह के बन्धन में पड़ना ही अपने पैरों में कुल्हाड़ी माराना था। हां, यही सारे उपद्रव की जड़ है।

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